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महात्मा गांधी की शिक्षा नीति

  • लेखक की तस्वीर: Ashish Sinh
    Ashish Sinh
  • 2 अक्तू॰ 2021
  • 7 मिनट पठन


गांधी जी का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी रहा है। दक्षिण अफ्रीका में वे एक अपमानित भारतीय की तरह और एक दृढ़ निश्चयी आंदोलनकारी नजर आते हैं, कभी वे भीरू वकील प्रतीत होते हैं तो कभी स्वयं जज को भी कोर्ट रूम में उनके सम्मान में खड़ा हुआ भी पाते हैं। वे अहिंसा की शिक्षा देते हैं तो 'करो या मरो' का उद्घोष भी करते हैं। कृषि, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ, अर्थशास्त्र, धर्म-दर्शन पर उनके विचारों की एक लंबी और अटूट शृंखला है।

आज जब रोजगार और शिक्षा पर चर्चा होती है तब हमें 'गांधीवादी शिक्षा प्रणाली' की ओर एक नजर डालने की जरूरत महसूस होती है। गांधी जी की बुनियादी शिक्षा पद्धति से कोई भी बेरोजगार नहीं रह सकता, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा की आवश्यकता केवल अक्षर-ज्ञान पर आधारित डिग्री हासिल करना नहीं है, बल्कि रोजगारपरक होना भी है। बच्चों को पढ़ाई के साथ उनके हाथों को हुनरमंद बनाना जरूरी है। अक्षर-ज्ञान मनुष्य को एक समझ देता है, और हुनर का ज्ञान मनुष्य को सफल एवं सार्थक जीवन देता है, जो अपने पैरों पर खड़े होकर समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकेंगे। अक्षर-ज्ञान की तुलना में हाथ की शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए गांधी जी 15 मार्च 1935 में 'हरिजन' में लिखते हैं-'मेरी राय में तो इस देश में, जहां लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जानेवाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा है। अक्षर-ज्ञान हाथ की शिक्षा के बाद आना चाहिए। हाथ से काम करने की क्षमता हस्त कौशल ही वह चीज है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। लिखना-पढऩा जाने बिना मनुष्य का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर-ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता।'

गांधी जी शिक्षा के विकास की उद्देश्य बुद्धि विकास तक सीमित नहीं मानते थे, उनकी दृष्टि में शरीर के साथ-साथ आत्मा का विकास भी शिक्षण का अंग होगा चाहिए। 31 जुलाई 1937 के 'हरिजन' में उन्होंने लिखा-'शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक की, प्रौढ़ की शरीर, मन तथा आत्मा को उत्तम क्षमताओं को उद्धरित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर-ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और उसका आरंभ। यह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से केवल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान पाना आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मैं बच्चों की शिक्षा का श्रीगणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे, उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य मानकर करूंगा। मेरा मानना है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है।'

गांधी जी की अध्यक्षता में वर्ष 1937 वर्धा में 'अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन' आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन भी सम्मलित हुए थे। सम्मेलन के बाद एक प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव में मोटे तौर पर तीन बिंदुओं पर जोर दिया गया-बच्चों की 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी कि इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंदित हो। इसके अलावा पर्यावरण हस्तकला, अंक गणित, समाज शास्त्र, भूगोल-इतिहास की शिक्षा की व्यवस्था भी हो। गांधी जी इन विषयों के साथ ही प्राथमिक स्तर पर बच्चों को संगीत-कला और व्यायाम की शिक्षा को भी अनिवार्य समझते थे। शिक्षा के संदर्भ में गांधीजी ने कहा-'शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था न सिर्फ फिजूलखर्ची वाली है, बल्कि सचमुच ही नुकसानदायक भी है। लड़के अपने अभिभावकों से, अपने गांवों से, अपने पारंपरिक कौशलों से बिछुड़ जाते हैं। वे बेचारगी में छोटे-मोटे बाबूगीरी वाले कामों पर निर्भर हो जाते हैं और तो और बुरी आदतें व शहरी नकचढ़ापन अपना लेते हैं तथा गांव में किए जाने वाले सारे शारीरिक श्रम को, जिन पर हम सभी निर्भर हैं, जरिया समझने लगते हैं।'

यहां गर्व के साथ उल्लेख करना चाहता हूं कि मैं रायपुर के उसी मुहल्ले का रहने वाला हूं जहां के, वर्धा में हुए शैक्षिक सम्मेलन में ठाकुर प्यारेलाल सिंह और पं. रामदयाल तिवारी भी आमंत्रित थे। वर्धा सम्मेलन में वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जे. बी. कृपलानी, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, जयराम दास दौलतराम आदि देश के 72 शिक्षाविद उपस्थित थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह तत्कालीन सी. पी. एंड बरार विधान सभा में 1936 में रायपुर से विधायक निर्वाचित होकर एन. बी. खरे के मंत्रिमंडल में कुछ दिनों तक शिक्षा मंत्री रहे। वे 1952 के चुनाव में रायपुर से ही निर्वाचित होकर नेताप्रतिपक्ष चुने गए थे। पं. रामदयाल तिवारी ने 1936 में गांधी जी कार्यक्रमों पर वृहद ग्रंथ 'गांधी मीमांसा' की रचना की थी। 1940 में गांधी मीमांसा के प्रकाशन के बाद मुंशी प्रेमचंद ने उन्हें 'समर्थ समालोचक' संबोधित किया था।

सम्मेलन में बुनियादी विद्यालयों की नींव रखी गई। जहां छात्रों को सूत कताई, कपड़ा बुनाई, लोहारगिरी, बढ़ईगिरी, कृषि कार्य, बागवानी और झाडू-टोकरी बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। गांधी जी भली भांति इस बात से परिचित थे कि प्रत्येक हाथ को काम और प्रत्येक पेट को अन्न तभी मिल सकता है जब सब लोग किसी न किसी कौशल को विकसित कर काम करेंगे। इसीलिए ही वे मशीन आधारित उत्पादन तथा औद्योगिकीकरण का विरोध करते थे। उनका मानना था कि इससे लोगों का रोजगार छिन जाता है। आज के समय में जिस 'अर्न व्हाइल लर्न' योजना को प्रगतिशील, व्यावहारिक और विकसनशील शिक्षा की प्रवृति माना जाता है, उसके बीज महात्मा गांधी की वर्धा योजना में निहित हैं। उनका विचार था कि शिक्षा बालकों के जीवन, घर, ग्राम, लघु कुटीर उद्योगों, हस्तशिल्पों और व्यवसाय से एकाकार हो।


आत्मनिर्भर उद्देश्य नहीं, कर्तव्य

गांधीजी की स्पष्ट घोषणा थी कि आत्मनिर्भर बनना हमारा उद्देश्य नहीं, बल्कि कर्तव्य है। यह दृष्टि गांधी जी की बुनियादी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। प्रत्येक विद्यार्थी देश का भावी नागरिक है, उसे दूसरों पर या सरकार पर आश्रित होने की बजाए आत्मनिर्भर होना चाहिए। आज देश के युवा वर्ग के समक्ष रोजगार का संकट है तो दूसरी ओर रोजगार के लिए सरकार की ओर निरंतर देखते रहना उसकी नियति बन गया है। गांधी जी ने एक भविष्यदृष्टा की भांति इस समस्या को पहचाना और समाधान के सूत्र भी दिए। स्वरोजगार का सूत्र उनकी बुनियादी शिक्षा का मूल सिद्धांत है।

'श्रम में शर्म नहीं' तथा प्रत्येक श्रम का सामाजिक सम्मान भी गांधी जी की बुनियादी शिक्षा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम कुछ कार्यों को निकृष्ट मानने लगे हैं। हम किसी रोजगार को छोटा समझते हैं और किसी काम को बड़ा। गांधी जी ने प्रयास किया कि विद्यार्थी किसी काम को छोटा या बड़ा न समझें। बल्कि प्रत्येक कार्य की उपयोगिता समझें, हर काम को समान समझें और सम्मान दें। बुनियादी शिक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था, ताकि वे श्रमवान बने, स्वस्थ रहें और समाज के श्रमिक वर्ग का सम्मान करना भी सीखें।


मातृभाषा में शिक्षा

मातृभाषा में शिक्षा उनकी बुनियादी शिक्षा का अभिन्न अंग है। विश्व के प्राय: सभी देश अपनी-अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा दे रहे हैं। गांधी जी ने कई मौकों पर स्वीकार भी किया कि मातृभाषा देश के मूल्यों और संस्कारों की वाहक होती है। वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि मातृभाषा से विद्यार्थी न केवल बढिय़ा तरीके से समझ पायेगा बल्कि मातृभाषा में निहित सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्य भी विद्यार्थी जीवन का अभिन्न अंग बन जाएंगे। उनका विचार था कि 7 से 14 वर्ष के बालकों एवं बालिकाओं को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाए जिसमें शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। 'हिंदुस्तानी भाषा' का अध्ययन अनिवार्य हो।


बुनियादी शिक्षा

बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम को गांधी जी ने समुदायों की आवश्यकताओं के आधार पर निर्मित कराया। स्थानीय परिस्थितियों, अपेक्षाओं और जरूरतोंं के आधार पर शिक्षा में स्थानीय तत्त्वों को सम्मिलित किए जाने पर उन्होंने जोर दिया। बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने खादी, कताई-बुनाई, कृषि कार्य, मिट्टी का काम, मछली पालन, फल-सब्जी की बागवानी का प्रावधान किया। उन्होंने बालिकाओं के लिए गृहविज्ञान तथा स्थानीय एवं भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुकूल हस्तशिल्प का प्रावधान किया। गांधी जी चाहते थे कि शिक्षा को व्यावहारिक क्रिया-कलापों और अनुभव आधारित होना चाहिए। इससे विद्यार्थी शीघ्रता से सीखेंगे। गांधी जी की शिक्षा पद्धति में नैतिक और आध्यात्मिक विकास भी शामिल है।


विघटित समाज को सुगठित बनाना

वे शिक्षा को ज्ञान विशेष की सीमित दीवारों तक ही स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य जीवन के विविध क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान करना तथा विघटित समाज को सुगठित बनाना भी है। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा वही है, जिसमें स्वाश्रय के द्वारा रचनात्मक क्रियाशीलता की अनंत संभावनाएं हों, मानव-मानव को जोडऩे की उदार चेतना हो तथा राष्ट्र निर्माण की भावना हो। वे कहते थे कि 'मैंने अब तक जो कुछ भी हिन्दुस्तान को दिया है, उसमें यह शिक्षा-योजना और पध्दति अति महत्त्वपूर्ण है। मैं नहीं मानता कि इससे भी मूल्यवान और उत्तम कुछ और भी है या हो सकता है या मैं दे सकता हूं।'


शिक्षक तैयार किए जाएं

गांधी जी के अनुसार शिक्षा का तत्त्वज्ञान अधिकतर जीवन-तत्त्व में ही सम्मिलित हैं। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए कार्यक्रमों का आयोजन किया जान चाहिए, कार्यपद्धतियां बनाई जानी चाहिए, शिक्षक तैयार किए जाने चाहिए, उनके लक्ष्य एवं आदर्शों को ध्यान में रखकर उनका मूल्यांकन भी करते रहना चाहिए। सुभाषचंद्र बोस के साथ एक चर्चा के दौरान गांधी ने उनसे कहा था कि शिक्षकों के लिए पाठ्य पुस्तकों का निर्माण होना चाहिए। शिक्षा परिषद इस दिशा में कार्य कर रही थी। नेताजी बोर्ड की कार्य प्रणाली पर चर्चा करने के लिए गांधी जी के पास आए थे। 22 अक्टूबर 1937 को दोनों के बीच परिषद की रूपरेखा और कार्यों पर विस्तार से विमर्श हुआ था।

ललित कला अति आवश्यक

अक्षर-ज्ञान की अपेक्षा गांधी जी संस्कार को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थेे। लेकिन वे सुन्दर अक्षरों को विद्या का आवश्यक अंग और असुन्दर लेख को अपूर्ण शिक्षा की निशानी कहते थे। उनके मुताबिक इसके लिए ललित कला अति आवश्यक है। 'सत्य के प्रयोग' में गांधी जी ने इन विषयों का उल्लेख किया है। वे चरित्र के विकास की महत्ता को बताते हुए लिखते हैं कि 'शिक्षा का सेतु, चारित्र्य की नींव पर नहीं हो तो वह न के बराबर है।' कोलम्बो कॉलेज के छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था-'आपकी शिक्षा का प्रारंभ सत्य और शुद्धता की नींव पर न हुआ तो वह व्यर्थ है।' उन्होंने 'सा विद्या या विमुक्तये' को भी शिक्षा का उद्देश्य बताया था। मुक्ति और विद्या का व्यापक अर्थ स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने कहा 'विद्या अर्थात् लोकापयोगी सर्वज्ञान और मुक्ति अर्थात् इस जीवन के सर्व दासत्व में से छूट जाना।'

असीम मिश्रा

वरिष्ठ प्राचार्य

डीएवी पब्लिक स्कूल

लखनपुर एरिया, बंधबहाल

जिला-संबलपुर (ओड़ीशा)

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